देहरादून। उत्तराखंड के रम्माण उत्सव की जड़ें पांच सौ साल पुरे इतिहास से जुड़ी हैं। भारत में सनातन धर्म के प्रचार प्रसार और सांस्कृतिक एकता को मजबूत बनाने के क्रम में आदि शंकराचार्य ने देश के चार हिस्सों में मठों या पीठों की स्थापना की थी। इन पीठों या मठों से शंकराचार्य के शिष्यों ने सनातन धर्म के प्रसार का बीड़ा उठाया। इसके प्रसार के लिए शिष्यों, संतों ने अलग अलग शैली अपनाई। इसके जरिए विभिन्न सैली में धार्मिक कथाएं कहने की प्रथा शुरु हुई। आज के उत्तराखंड में जोशी मठ जिसे पहले ज्योतिर्मठ के नाम से जाना गया, के आसपास धर्म के प्रचार प्रसार के लिए हिंदु देवी देवताओं के मुखौटे लगाकर नृत्य शैली को चुना गया। इसके तहत शंकराचार्य के शिष्यों ने रामायण और महाभारत के विभिन्न प्रसंगों पर नृत्य नाटिकाएं प्रस्तुत कर हिंदु धर्म के पुनर्जागरण का काम शुरू किया। यही मुखौटा नृत्य बाद में यहां के समाज का अंग बन गया जो बाद में रम्माण उत्सव के रूप में मनाया जाने लगा।
रामायण और महाभारत की कथाएं कहने के लिए उत्तराखंड में विभिन्न शैलियों का इस्तेमाल होता आया है। समय के साथ साथ इनमें से कई विधाएं लुप्त हो गईं और कुछ लुप्तप्राय होने की स्थिति में पहुंच गई। इनमें चंपावत के देवीधुरा में प्रसिद्ध बग्वाल युद्ध में पत्थरों से होने वाला युद्ध हो या गुप्तकाशी के जाख देवता के समक्ष जलते मेगारों में हैरतअंगेज कर देने वाला नृत्य शामिल हैं। ये लोक कलाएं या नृत्य संस्कृति उत्तराखंड में पीढ़ी दर पीढ़ी चली आ रही है, जो उत्तराखंड की लोक संस्कृति से रू-ब-रू कराती हैं। साथ ही वर्षों पुरानी सांस्कृतिक विरासत को जीवित रखने का प्रयास भी करते हैं। ऐसी ही एक लोक संस्कृतिक रम्माण है।
रम्माण उत्सव उत्तराखंड की 500 वर्ष पुरानी संस्कृति है। करीब एक पखवाड़े चलने वाले इस उत्सव में रम्माण उत्सव में रामायण और महाभारत की कथाओं का मंचन बिना संवादों के गीतों, ढोल और ताल की लय पर मुखौटा शैली के जरिए किया जाता है। रम्माण उत्सव उत्तराखंड के चमोली जिले के सलूड़ गांव में प्रतिवर्ष अप्रैल में बैसाखी से शुरु होता है। इस गांव के अलावा डुंग्री, बरोशी, सेलंग गांवों में भी रम्माण का आयोजन किया जाता है। इसमें सलूड़ गांव का रम्माण सबसे अधिक लोकप्रिय है। इस वर्ष रम्माण उत्सव 26 अप्रैल से शुरू हो गया है। यह विविध कार्यक्रमों, पूजा और अनुष्ठानों की एक श्रृंखला है। इसमें सामूहिक पूजा, देवयात्रा, लोकनाट्य, नृत्य, गायन, मेला आदि विविध रंगी आयोजन होते हैं। इसमें परम्परागत पूजा- अनुष्ठान तथा मनोरंजक कार्यक्रम भी आयोजित होते है। यह भूम्याल देवता के वार्षिक पूजा का अवसर भी होता है एवं परिवारों और ग्राम-क्षेत्र के देवताओं से भेंट करने का मौका भी होता है।
उत्सव का अंतिम दिन सर्वाधिक लोकप्रिय है। इस दिन लोकशैली में रामायण के कुछ चुनिंदा प्रसंगों को प्रस्तुत किया जाता है। रामायण के इन प्रसंगों की प्रस्तुति के कारण यह सम्पूर्ण आयोजन रम्माण के नाम से जाना जाता है। इन प्रसंगों के साथ बीच-बीच में पौराणिक, ऐतिहासिक एवं मिथकीय चरित्रों तथा घटनाओं को मुखौटा नृत्य शैली के माध्यम से प्रस्तुत किया जाता है। इस प्रस्तुति का सबसे आकर्षक पहलू यह है कि पूरी कथा में पात्रों के बीच संवादों का उपयोग नहीं होता। बल्कि गायन व नृत्य के जरिए पूरी कथा कही जाती है।रम्माण के दौरान होने वाली नृत्य नाटिकाओं में केवल पारंपरिक शैली के साजों का इस्तेमाल होता है। वस्त्र परिधानों में घाघरा, चूड़ीदार पाजामा, रेशमी साफे आदि जैसी पारंपरिक वेषभूषा का इस्तेमाल होता है। संगीत के लिए एक दर्जन जोड़ी ढोल-दमाऊ व आठ भंकोरों के अलावा झांझर व मजीरों के जरिए भावों की अभिव्यक्ति दी जाती है। रम्माण में दो तरह के द्यो पत्तर यानी देवताओं के मुखौटे और ख्यल्यारी पत्तर यानी मनोरंजक पात्रों के मुखौटों का इस्तेमाल होता है।
रम्माण के विशेष नृत्य
■ बण्या-बण्याण :- यह नृत्य तिब्बत के व्यापारियों पर आधारित, जिस में उन पर हुए चोरी व लूटपाट की घटना का विवरण नृत्य के माध्यम से प्रस्तुत करते है।
■ म्योर-मुरैण :- यह नृत्य पहाड़ो पर होने वाली दैनिक परेशानीयों जैसे :- पहाड़ों में लकड़ी और घास काटने के लिए जाते समय जंगली जानवरों द्वारा किए जाने वाले आक्रमण का चित्रण होता है। • माल-मल्ल :- इस नृत्य में स्थानीय लोगो व गोरखाओं के बीच हुए युद्ध का वर्णन होता है।
■ कुरू जोगी :- यह एक प्रकार का हास्य नृत्य है, इस में रम्माण का हास्य पात्र, जो अपने पूरे शरीर पर चिपकने वाली विशेष प्रकार की घास (कुरू) लगाकर लोगों के बीच चला जाता है। कुरू चिपकने के भय से लोग इधर-उधर भागते हैं, लेकिन कुरू जोगी उन पर अपने शरीर में चिपके कुरू को निकालकर फेंकता है। सामान्य भाषा में इसे एक जोकर की संज्ञा दी जा सकती है, जो लोगो को हँसाने और मनोरंजन करने का कार्य करता है।
सलूड़ – डुंग्रा से विश्व धरोहर तक का सफ़र
रम्माण उत्सव वर्ष 2007 तक सलूड़ तक ही सीमित था। लेकिन गांव के ही शिक्षक डॉ. कुशल सिंह भंडारी ने इसे लोकप्रिय बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। डॉ. भंडारी ने रम्माण को लिपिबद्ध कर इसका अंग्रेजी में अनुवाद किया। उसके बाद इसे गढ़वाल विवि लोक कला निष्पादन केंद्र की सहायता से वर्ष 2008 में दिल्ली स्थित इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केन्द्र तक पहुंचाया। इससे प्रभावित होकर कला केंद्र की पूरी टीम सलूड- डूंग्रा पहुंची।इसके बाद 40 लोकनृत्यों के एक दल ने दिल्ली आकर अपनी प्रस्तुतियां दीं। यह डॉ. भंडारी की मेहनत का ही नतीजा था कि भारत सरकार ने इस शैली को यूनेस्को भेजा और साल 2009 में यूनेस्को ने पैनखंडा में रम्माण को विश्व धरोहर घोषित किया।
कैसे पहुंचे?
हवाई मार्ग – देहरादून का जॉली ग्रांट हवाई अड्डा गढ़वाल से 133 किमी की दूरी पर स्थित है। वहां से, आप या तो एक टैक्सी या कोई अन्य परिवहन साधन लेकर आसानी से गढ़वाल पहुंच सकते हैं।
सड़क मार्ग – गढ़वाल राष्ट्रीय राजमार्ग 119 के माध्यम से काफी अच्छी तरह से जुड़ा हुआ है। इसलिए, यदि आप सड़क के माध्यम से गढ़वाल की यात्रा करने की योजना बना रहे हैं, तो यह आपके लिए एक समग्र सुविधाजनक अनुभव होगा।
ट्रेन द्वारा – ट्रेन नेटवर्क के माध्यम से गढ़वाल की कनेक्टिविटी काफी अच्छी है। कोटद्वार गढ़वाल का निकटतम रेलवे स्टेशन है और वहाँ से आप अपने गंतव्य तक पहुँचने के लिए कैब या परिवहन के कुछ अन्य साधन प्राप्त कर सकते हैं।
पर्यटन मंत्री श्री सतपाल महाराज ने कहा कि विश्व की अमूर्त सांस्कृतिक धरोहर रम्माण मेला रम्माण वैदिक संस्कृति से जुड़ी और रामायण काल की घटनाओं को मूर्त रूप देती सांस्कृतिक कला है। कोरोना काल के दो साल बाद रम्माण मेले का पौराणिक परंपराओं के साथ आयोजन किया गया है। हजारों की संख्या में पहुंच लोगों ने इस विशेष धार्मिक सांस्कृतिक उत्सव का आनंद लिया। राम से जुड़े प्रसंगो के कारण इसे लोक शैली में प्रस्तुतिकरण, लोकनाट्य, देवयात्रा, परम्परागत पूजा अनुष्ठान, भुम्याल देवता की वार्षिक पूजा, गावं के देवताओं की वार्षिक भेट आदि आयोजन इस उत्सव में होते हैं। रम्माण मेले में हजारों श्रद्धालु आते हैं।