कथाकार मुकेश नौटियाल की पुस्तक ‘हिमालय की कहानियां’ के निमित्त “धाद” का आयोजन सृजन-संवाद

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      देहरादून:”धाद स्मृति वन” मालदेवता में कथाकार मुकेश नौटियाल के कहानी संकलन ‘हिमालय की कहानियां’ के दूसरे संस्करण के प्रकाशन के अवसर पर आयोजित कार्यक्रम सृजन-संवाद  में वरिष्ठ साहित्यकार जितेन ठाकुर ने कहा कि साहित्य अपने समय को भविष्य के लिए शब्दों में दर्ज़ करता है ताकि आने वाली पीढ़ियां अतीत की उपलब्धियों और गलतियों से सबक ले सकें। मुकेश नौटियाल की कहानियों को उन्होंने हिमालय के लोक-जीवन का विश्वसनीय दस्तावेज़ बताया। सद्य प्रकाशित संकलन की कहानियों को उन्होंने संस्मरण विधा से प्रभावित बताते हुए कहा कि लेखन की यह शैली घटनाओं और चरित्रों को विश्वसनीय बना देती है। उन्होंने कहा कि ‘हिमालय की कहानियां’ संग्रह की कथाएं पर्वत-प्रांतर के लोगों के उल्लास और विषाद से पाठकों को बख़ूबी परिचित कराती हैं।       कथाकार मुकेश नौटियाल ने  पाठकों के प्रश्नों का जवाब देते हुए अपनी लेखन-यात्रा के बाबत विस्तार से बताया। उन्होंने कहा कि ‘हिमालय की कहानियां’ संग्रह में संकलित सभी बीस कहानियां उन्होंने दो-तीन दशक पहले बच्चों और किशोरों के लिए लिखी थीं। उस दौर में यह कहानियां पराग, नंदन, चंपक, बालभारती, बालहंस और सुमन सौरभ जैसी महत्वपूर्ण पत्रिकाओं में प्रकाशित हुई थीं। ये कहानियां उन्होंने गांव में रहते हुए लिखीं, यही कारण है कि इन कहानियों में सरकारी दादी, काली बहादुर, हिमाली, रीछ औरत, इमरती, लीमा तेनजिंग, जैसे मानवीय चरित्रों के अलावा भोटू, ओसी और जमुना जैसे पालतू पशु भी महत्वपूर्ण चरित्रों के रूप में दर्ज हुए हैं। मुकेश नौटियाल के अनुसार लेखन के लिए हिमालय का लोक उर्बर विषय-वस्तु है। अभी भी यहां के अनेक बिंब साहित्य में दर्ज़ नहीं हुए हैं।

उन्होंने लेखकों का आह्वान किया कि अस्तित्व के संकट से जूझ रहे सांस्कृतिक बिंबो को  साहित्य में सहेजने के लिए वह आगे आएं, अन्यथा आने वाली नस्लें अपनी जड़ों को भूल जाएंगी।     मीनाक्षी जुयाल ने मुकेश नौटियाल की चर्चित कहानी “जाली वाला दरवाजा” का नाटकीय वाचन कर श्रोताओं और दर्शकों को कथा-वाचन के नए कौशल से परिचित कराया। पुस्तक में शामिल कहानियों पर आम पाठकों ने अपनी प्रतिक्रियाएं व्यक्त कीं। “धाद” के सचिव तन्मय ममगाईं ने कहा कि उनकी संस्था के शैक्षिक अभियान ‘कोना कक्षा का’ के अंतर्गत स्थापित पुस्तक-कोनों में ‘हिमालय की कहानियां’ रखवाई जा रही हैं। इसी क्रम में धाद साहित्य एकांश ने यह निश्चय किया है कि आने वाले समय में हिमालय के जन-जीवन,संस्कृति और सरोकारों पर केंद्रित पठनीय कहानियों  और रुचिपूर्ण कविताओं के संकलन भी धाद प्रकाशन के द्वारा प्रकाशित किए जाएंगे।    

 इस कार्यक्रम का संचालन रवींद्र नेगी ने किया। कार्यक्रम के उपरांत पहाड़ी उत्पादों के प्रोत्साहन के निमित्त “कल्यो’ भोज का आयोजन किया गया। कार्यक्रम में पूर्व कुलपति डॉ. सुधारानी पाण्डेय, वरिष्ठ आलोचक दिनेश जोशी, साहित्यकार डॉली डबराल, कथाकार सुधा जुगरान, लेखक डॉ. राकेश बलूनी, लोकभाषी कवि शांति प्रकाश जिज्ञासु, शिक्षाविद निशा जोशी, रेखा नेगी, मनोहर लाल, दर्द गढ़वाली, राजीव पांथरी, प्रभाकर देवरानी, नंदलाल शर्मा, स्वाति बडोला, मनीषा ममगाईं, मंजू काला,बीरेंद्र खंडूड़ी, अर्चना ग्वाड़ी, पुष्पलता ममगाईं, मदन मोहन कंडवाल, अनिता सबरवाल, देवकी हटवाल, सुनील भट्ट, दिवाकर सकलानी और मीनाक्षी जुयालने भाग लिया।
*आयोजन के आकर्षण रहा कल्यो*आयोजन  का विशेष आकर्षण धाद द्वारा पहाड़ी भोजन के पक्ष में हर महीने आयोजित होने वाला कलयो रहा। पहाड़ के भोजन को फ्यूजन के साथ आय9जीत कर रही कल्यो कि संयोजिका मंजू काला ने बताया कि इस बार चने और हरे प्याज का    “अदरकी फाणु”-इलायची की खुशबू में पगा सतरंगी ” झंगौरा “-बडी़ – दो-  प्याजा-लहसुनिया ढबाडी रोटी -(- साथ  “आग में भूने कच्चे हरे  टमाटर की चटनी !  ) जीरे और लाल मिर्ची से बघारा हुआ   ”  आलू काखडी़ का रैला–केशरिया भात उर्फ जर्दा पुलाव या ” पहाडी़ खुशका-    नींबू, माल्टा व पुदीने के नमक से तैयार – (लच्छा सलाद)  मिंट_ टी- परोसी गयी। मंजू काला बताती है कि कल्यो के साथ बड़ी संख्या में लोग जुड़ रहे है और हिमालय के अन्न को अपने जीवन मे शामिल कर रहे है।



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